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कुएँ का मेन्डक

विक्टर
विक्टर
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मैं तो था कुएँ का मेन्डक,
दुनिया मेरी वही रही,
अब जो बाहर आके देखा,
हे भगवान क्या खूब रही.

वहाँ थी दुनिया अजब निराली,
बस दीवारें काली काली,
उजला अंबर किसने देखा,
बस रातें ही थी मतवाली.

कुआँ अच्छा भी था लगता,
दोस्त यार सब मिले वहीं थे,
लेकिन कुएँ की सच्चाई,
नही मॅन से थी सी छुपे छुपाई.

जितना चाहा के मैं निकलूं,
कुआँ गहरा होता जाता,
कई बार मुझको ये लगता,
रह इसमें तेरा क्या जाता.

पर मेरी भी एक थी आशा,
बाहर का सूरज मैं देखूं,
कैसा लगता होगा सवेरा,
काश लगे सुयोग सुनेहरा.

ग़लती मेरी मेन्डक मैं हूँ,
मेरी ही क़िस्मत का लेखा,
कुएँ की तो अलग ही दुनिया,
उसको भाए जिसने नही देखा.

मॅन असमंजस में क्या करता,
करता कोशिश स्वयं से लड़ता,
इक दिन ज़ोर छलाँग लगाई,
देखा धरती माँ मुस्काई.

बाहर की दुनिया की जगमग,
ऐसी देखी कहीं नही,
मैं तो था कुएँ का मेन्डक,
हे भगवान क्या खूब रही!!

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