विक्टर
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वो तारा उस दूर गगन में,
चमके बस रात को,
फिर मेरा मन क्यूँ ललचे,
दिन में उसकी चाह में.
लगता है वो तारा जैसे,
प्यारा है बस चाँद का,
जागे रात उसके साथ,
और सोए दिन थक-हारा जैसे.
मैं भी जागा एक बार,
सोचा देखूं क्या है बात,
छुपे चाँद तारा उस रात,
बादल की परछाई में.
ऐसे आँखमिचोली खेले,
पर मैने हार ना मानी,
बादल बरसा बिजली कड्की,
हुआ झमाझम पानी.
उजला अंबर फिर से चमका,
तारा फिर ना निकला,
चाँद बराबर वहीं है रहता,
सूना साथ है सहता.
उस तारे को है ढूंडे मन,
बरबस ही चंचल हरदम,
जो दिख जाए फिर से नटखट,
ज़िद ना करेगा यह मन.
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